बुधवार, 6 अक्तूबर 2010
आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....
कौड़ियों के भाव बिका, जब से अंतःकरण,
अनगिन मुखौटे हैं, सैकड़ों हैं आवरण...
मदमस्त होकर जो झूमती हैं पीढियां,
लड़खड़ा न जाएँ कहीं सभ्यताओं के चरण...
ठिठका-सा चाँद है, गुम भी, खामोश भी,
जुगनुओं को रात ने दी है जब से शरण...
गुमशुदा-सा फिरता हूँ, अपनों के शहर में,
आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....
मौन की देहरी जब तुमने भी लाँघ दी,
टूट गए रिश्तों के सारे समीकरण...
पीड़ा के शब्द-शब्द मीत को समर्पित हों,
आंसुओं की लय में हो, गुंजित जीवन-मरण...
माँ ने तो सिखलाया जीने का ककहरा,
दुनिया से सीखे हैं, नित नए व्याकरण...
- निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
ये पोस्ट कुछ ख़ास है
मृत्यु की याद में
कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...
सबसे ज़्यादा पढ़ी गई पोस्ट
-
छ ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़...
-
कौ न कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ ...
-
दिल्ली में कई बार ऐसा हुआ कि मैं और मेरे मुसलमान साथी किराए के लिए कमरा ढूंढने निकले हों और मकान मालिक ने सब कुछ तय हो जाने के बाद हमें क...
-
जहां से शुरू होती है सड़क, शरीफ लोगों की मोहल्ला शरीफ लोगों का उसी के भीतर एक हवादार पार्क में एक काटे जा चुके पेड़ की सूख चुकी डाली प...
-
विविध भारती के ज़माने से रेडियो सुनता आ रहा हूं। अब तो ख़ैर विविध भारती भी एफएम पर दिल्ली में सुनाई दे जाती है। मगर दिल्ली में एफएम के तौर...
-
65 साल के हैं डॉ प्रेमचंद सहजवाला...दिल्ली में मेरे सबसे बुज़ुर्ग मित्र....दिल्ली बेली देखने का मन मेरा भी था, उनका भी...हालांकि, चेतावनी थ...
-
दिल्ली की सड़कों पर कत्लेआम है, अच्छा है अच्छे दिन में मरने का आराम है, अच्छा है। छप्पन इंची सीने का क्या काम है सरहद पर, मच्छर तक ...
-
शादियों को लेकर मुझे सिर्फ इस बात से उम्मीद जगती है कि इस दुनिया में जितने भी सफल पति दिखते हैं वो कभी न कभी एक असफल प्रेमी भी ज़रूर रहे हों...
-
मुझे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है। एक स्कूल जहां रिक्शा घंटी बजाता आता तो हम पीछे वाले डिब्बे में बैठ जाते। रिक्शेवाला दरवाज़े की कुंडी ...
-
मुझे याद है, जब मेरी ठुड्डी पर थोडी-सी क्रीम लगाकर, तुम दुलारते थे मुझे, एक उम्मीद भी रहती होगी तुम्हारे अन्दर, कि कब हम बड़े हों, ...
dard aur kasak ka sameekaran .. Badhiya hai
जवाब देंहटाएंठिठका-सा चाँद है, गुम भी, खामोश भी,
जवाब देंहटाएंजुगनुओं को रात ने दी है जब से शरण...
-बहुत उम्दा भाव!
बहुत खूब निखिल भाई..
जवाब देंहटाएंहिन्दी के शब्दों के साथ ग़ज़ल-ग़ज़ल खेलना बड़ा मुश्किल होता है... जब "आवरण" और "व्याकरण" को काफ़िया बनाना हो तो शब्द-सामर्थ्य की सही परीक्षा हो जाती है। मुझे खुशी है कि आप इस प्रयोग में सफल हुए हैं।
बधाई हो!
-विश्व दीपक