शनिवार, 24 मार्च 2007

.....luv once said never is


Strength of a Man
The strength of a man isn't seen in the width of his shoulders।It is seen in the width of his arms that encircle you।
The strength of a man isn't in the deep tone of his voice.It is in the gentle words he whispers.
The strength of a man isn't how many buddies he has.It is how good a buddy he is with his kids.
The strength of a man isn't in how respected he is at work.It is in how respected he is at home.
The strength of a man isn't in how hard he hits.It is in how tender he touches.
The strength of a man isn't how many women he's Loved by.It is in can he be true to one woman.
The strength of a man isn't in the weight he can lift.It is in the burdens he can understand and overcome
.

Beauty of a Woman
The beauty of a woman Is not in the clothes she wears,The figure she carries,Or the way she combs her hair.
The beauty of a womanMust be seen from her eyes,Because that is the doorway to her heart,The place where love resides.
The beauty of a womanIs not in a facial mole,But true beauty in a womanIs reflected in her soul.
It is the caring that she lovingly gives,The passion that she shows,The beauty of a womanWith passing years-only grows.

Lucky is the man who is the first love of a woman, but luckier is the woman who is the last love of a man

........आज माँ घबराई हुई है

मैं दिल्ली में हूँ और मेरा मन कहीं
कहाँ हूँ मैं और ये ज़िंदगी मेरी
कि जैसे रेशा-रेशा बिखरने को

किससे कहूँ?
दोस्त वो कौन हो कि जो आधी रात को

तवज्जो दे कि मैं कितनी तकलीफ़ में सचमुच
ये कैसा डर मैं ऐसा सोचता हूँ
कि मेरे इस तरह बेवक़्त फ़ोन करने से
कहीं ख़त्म न हो बची-खुची दुआ सलाम

फिर भी उठाता हूँ फ़ोन कि इतना बेबस
और घुमाता हूँ जो भी नंबर
वह दिल्ली का नहीं होता

*****

फ़िजाओं में खुश्बू का मेला
रंगीनियाँ बिखरी हुई है

बाज़ार सज-धज के खड़े
हवाओं में नगमें रोशन

बच्चों के लिए आज तो
दिन है मौज मस्ती का

माँ कहती है लेकिन
आज घर के बाहर न निकलना
आज त्यौहार का दिन है

आज माँ घबराई हुई है

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लीलाधर मंडलोई

सोमवार, 19 मार्च 2007

...सिर्फ़ धुआँ

उसके घर का स्नैपशॉट
गली के उस कोने में
-छोटे सपनों के ढेर पर
कभी रोता, कभी हँसता
छोटा सा घर था उसका
अब वहाँ धुआँ है।

चौके में चूल्हा है
मगर अब ठंडा है
चूल्हे पर हाँडी है,
आधी ही पकी है
सिलबट्टे पर लाल मिर्च की चटनी
पिसते-पिसते ही रह गयी
बाक़ी सब धुआँ है।

पिछवाड़े मुर्ग़ियों का दड़बा है
ख़ाली और सुनसान है
कुछ टूटे हुए पंख हैं
कुछ लाल-लाल धब्बे हैं
बाक़ी सब धुआँ है।

यह नजमा का फ़्रॉक है
यह सलीम का बस्ता है
यह अब्दुल की किताब है
यह नसीम की शलवार है...
यह नुची हुई पतंग का चिथड़ा है
अब तक थर्रा रहा है।
बाक़ी सब धुआँ है...सिर्फ़ धुआँ।

********************
(बीबीसी हिंदी सेवा प्रमुख अचला शर्मा एक जानीमानी कवियित्री और लेखिका हैं। उनके कई कहानी संग्रह और कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। सूरीनाम के हिंदी सम्मेलन और पद्मानंद साहित्य पुरस्कार से सम्मानित अचला के रेडियो नाटकों के दो संग्रह 'पासपोर्ट' और 'जड़ें' प्रकाशित हो चुके हैं।)

रविवार, 18 मार्च 2007

राधा कुरूक्षेत्र में........

यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि महाभारत जैसे बड़े युद्ध से राधा ख़ुद को कैसे तटस्थ रख सकती है. कवि की कल्पन है कि राधा कृष्ण से मिलने कुरूक्षेत्र पहुँचे और प्रेम, युद्ध, जीवन और मृत्यु से जुड़े प्रश्न पूछे.

इसी कविता के कुछ छंदः


राधा, कुरूक्षेत्र में

सखी अलग हो स्थिर बैठी,
तब मुसका बोली,‘‘मन में उठते रहे प्रश्न बीसियों निरंतर.
बस दो का ही उत्तर, हे कृष्ण, मुझे दे-क्या तू युद्ध रोक सकता है? क्यों न रोकता?’’

‘‘राधा का करतल कर में ले कोमल स्वर मेंकहा कृष्ण ने,
’’राधा! यह सामर्थ्य न मुझमें.
विधि भी कहाँ रोकने आती वक्र अहं को;मानव नैसर्गिक सीमाओं में स्वतंत्र है.
चले अहं के द्वंद्वों से या शिव विवेकसेयाकि वासनाओं से, वह स्वछंद स्वयं है.पथ के कंटक-कुसुम झेलने उसे पड़ेंगे;क्षण आने पर फल भी वह अनिवार्य चखेगा.
कोई समझा नहीं सका दुर्द्धर्ष अहं को.
हर भय लगता क्षुद्र, न आतंकित कर पाता;
विजयी दीखती अटल, पराजय सदा अकल्पित;दुर्योधन ने मेरी बात नहीं मानी है.
क्यों, कैसे मैं विवश करूं पीछे हटने को
आहत, त्रस्त अहं को दीन पांडवों के ही?
क्या चुप रहने का दायित्व द्रोपदी का ही?
दुर्योधन का अहं गले अनिवार्य नहीं क्यों?

‘‘अन्य उपाय नहीं, जो नर-संहार रुक सके?
‘‘है; यदि मैं एकाकी दुर्योधन-वध कर दूँ.
तब दुःशासन-शकुनि-कर्ण का भी वध होगा;
भीष्म द्रोण भी तब न स्यात् बचना चाहेंगे.

पर अनीति यह होगी, मेरे शुत्र नहीं ये;
कुछ भी कभी किसी ने नहीं बिगाड़ा मेरा.
हनन कौरवों का कर्त्तव्य पांडवों का है;
वह उनसे छीनना अन्याय उनके प्रति भी तो.

अंधे थे धृतराष्ट्र, न गद्दी उन्हें दी गई;
छला नियति ने उन्हें, छला फिर पूज्य भीष्म ने.
राजा पांडु बने, पांडव ही राजा होगा-
धृतराष्ट्र को सहज नीति यह पची न पल को.

उसका अहं नाग बन कर फुफकारा,
उसने चाहा छल-बल, कपट ध्रूत से नियति पलटना.
शकुनि, कर्ण, दुःशासन ने घृत दिया अग्नि में;
भीष्म-द्रोण चुप रहे, बीज विष-वृक्ष बन गया.

शायद भीष्म स्वयं को अपराधी गुन बैठे;
वे तटस्थ रह पाते, तो युद्ध न होता.
नर-संहार न हो, दायित्व कौरवों पर है;
पांडव आत्म-हनन कर लें, यह नीति-विपर्यय.

इंद्रप्रस्थ दे पांडु-सुतों को वृद्ध भीष्म ने
गुत्थी सुलझा दी थी; पर तब दुर्योधन ने
कपट द्यूत का जाल बुना; पूरा पा लेनेके भ्रम में,
लो, धर्मराज आ फंसे स्वयं ही.

पराभूत पांडव विगलित थे आत्म-ग्लानि से;
राज्य उन्हें लौटा यश, विजय सुयोधन पाता.
पर वह चला द्रौपदी को निर्वस्त्र नचाने;
भरी सभा में, सभी वृद्ध दृग मूंद चुप रहे.

मोहग्रस्त धृतराष्ट्र रहे, पर भीष्म-द्रोण भी
तो संकीर्ण मूढ़ सत्यों से रहे प्रवंचित.
क्यों न कहा, अब राज्य धृतराष्ट्रों का हो गया
फिर पांडव ही उसके नैतिक अधिकारी?

दया पांडवों को, थपकी दी दुर्योधन को;
छला स्वयं को राजभक्ति के अटल तर्क से.
बृहद् सत्य का पक्ष ग्रहण कर अब भी हों
ये विलग, विनत होगा दुर्योधन ; युद्ध न होगा.

पर, यह होता तो हो लेता पूर्व ही.
तब ये गुरुजन कभी न सहते कपट द्यूत को;
भरी सभा में दीन द्रौपदी की दुर्गति को.
आज पितामह सेनापति हैं दुर्योधन के !

या यह हो सकता है, राधे, पांडु-सुतों को
मैं मंझधार छोड़कर संग तुम्हारे चल दूं.
कट-मर पांडव जाएं या तज कुरूक्षेत्र को
लौटे सघन वनों में रह-रह सिर धुनने को.’’

कृष्ण चुप हुए; और अधिक कहते भी क्या वे
राधा ने समझा, फिर भी कह उठी,‘‘समर की
रक्त-कीच में धंस डूबेगा युग का यौवन;
बदल सकेगा क्या न ज्ञान तेरा कुरू-मन को?’’

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वीरेंद्र कुमार गुप्त

रविवार, 11 मार्च 2007

वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम..........

जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार
तब जाकर मैंने किए, काग़ज काले चार.
*
छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख.
*
मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार.
*
तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच.
*
मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार.
*ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाऊँ
अपनी पत्तल छोड़ कर, मैं जूठन क्यों खाउँ.
*
पाप न धोने जाऊँगा, मैं गंगा के तीर
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर.
*
सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक.
*
ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक.
*
बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार.
*
सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात.
*
अपनी-अपनी पीर का, अपना-अपना पीर
तुलसी की अपनी जगह, अपनी जगह कबीर.

वो निखरा जिसने सहा, पत्थर-पानी-घाम
वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम.
*
पिंजरे से लड़ते हुए, टूटे हैं जो पंख
यही बनेंगे एक दिन, आज़ादी के शंख.
*
जुगनू बोला चाँद से, उलझ न यूँ बेकार
मैंने अपनी रौशनी, पाई नहीं उधार.
*
बस मौला ज़्यादा नहीं, कर इतनी औक़ात
सर ऊँचा कर कह सकूँ, मैं मानुष की ज़ात.
*
पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप.
*
अपने को ज़िंदा रखो, कुछ पानी कुछ आग
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन में राग.
*
शबरी जैसी आस रख, शबरी जैसी प्यास
चल कर आएगा कुआँ, ख़ुद ही तेरे पास.
*
जो निकला परवाज़ पर, उस पर तनी गुलेल
यही जगत का क़ायदा, यही जगत का खेल.
*
कटे हुए हर पेड़ से, चीखा एक कबीर
मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर.
*
भूखी-नंगी झोंपड़ी, मन ही मन हैरान
पिछवाड़े किसने लिखा, मेरा देश महान.
*
हर झंडा कपड़ा फ़क़त, हर नारा इक शोर
जिसको भी परखा वही, औना-पौना चोर.
*
सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या नाता क्या प्यार
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार.
*
हम भी औरों की तरह, अगर रहेंगे मौन
जलते प्रश्नों के कहो, उत्तर देगा कौन.
*
भोगा उसको भूल जा, होगा उसे विचार
गया-गया क्या रोय है, ढूँढ नया आधार.
*
लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना मशाल
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल.
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नरेश शांडिल्यए-5, मनसाराम पार्क,संडे बाज़ार रोडउत्तम नगर, नई दिल्ली-110059

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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नदी तुम धीमे बहते जाना  मीत अकेला, बहता जाए देस बड़ा वीराना रे नदी तुम.. बिना बताए, इक दिन उसने बीच भंवर में छोड़ दिया सात जनम सांसों का रिश...

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