शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

हिंदी को ख़ून चाहिए.....

रुधिर-की बहने दो अब धार,

स्वर गुंजित हों नभ के पार,

किए पदताल भाषा के सिपाही आए,

खोलो, खोलो तोरणद्वार......

बहुत-सा हौसला भी, होश भी, जूनून चाहिए...

हिंदी को ख़ून चाहिए...



गुलामी-की विवशता हम,

समझने अब लगे हैं कम,

तभी तो एक परदेसी ज़बां,

लहरा रही परचम,

नयी रच दे इबारत, अब वही मजमून निखिल...

हिंदी को ख़ून चाहिए....



हुई हैं साजिशें घर में,
दिखे हैं मीत लश्कर में,

पडी है आस्था घायल,

अपने ही दरो-घर में...

उठो, आगे बढ़ो, हिंद को सुकूं चाहिए....

हिंदी को ख़ून चाहिए....

निखिल आनंद गिरि
+919868062333

4 टिप्‍पणियां:

  1. achha likha hai aapne, lekin shirshak thoda sa atpata sa lagta hai dur se dekhne se. fir bhi.. achha hai, likhte rahe.

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  2. बहुत अच्छे निखिल भाई. लिखते रहें, शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  3. ...hui haiN saazisheiN ghr meiN,
    dikhe haiN meet lashkar meiN...
    Hamari rashtra.bhasha, hamari apni mun ki bhasha Hindi ki asmita ko lekar aapki chinta sraahneey hai.
    iss anupam kavita ke madhyam se jo aahvaan aapne kiya hai, wo jan.jan tak pahunche, yahi kaamna hai. Saabhuvaad svikaareiN
    ---MUFLIS---

    जवाब देंहटाएं
  4. beintaha aahein bharne ko ji karta hai.kavita ki shuruaati panktiyan to lambe arse se meri juban par rahi hai,par puri kavita aaj....
    mindblowing bhai!
    ALOK SINGH "SAHIL"

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